एक दोस्त हलवाई की दुकान पर मिल गया ।
मुझसे कहा- ‘आज माँ का श्राद्ध है, माँ को लड्डू बहुत पसन्द है, इसलिए लड्डू लेने आया हूँ '
मैं आश्चर्य में पड़ गया ।
अभी पाँच मिनिट पहले तो मैं उसकी माँ से सब्जी मंडी में मिला था ।
मैं कुछ और कहता उससे पहले ही खुद उसकी माँ हाथ में झोला लिए वहाँ आ पहुँची ।
मैंने दोस्त की पीठ पर मारते हुए कहा- 'भले आदमी ये क्या मजाक है ?
माँजी तो यह रही तेरे पास !
दोस्त अपनी माँ के दोनों कंधों पर हाथ रखकर हँसकर बोला, 'भई, बात यूँ है कि मृत्यु के बाद गाय-कौवे की थाली में लड्डू रखने से अच्छा है कि माँ की थाली में लड्डू परोसकर उसे जीते-जी तृप्त करूँ ।
मैं मानता हूँ कि जीते जी माता-पिता को हर हाल में खुश रखना ही सच्चा श्राद्ध है ।
आगे उसने कहा, 'माँ को मिठाई,
सफेद जामुन, आम आदि पसंद है ।
मैं वह सब उन्हें खिलाता हूँ ।
श्रद्धालु मंदिर में जाकर अगरबत्ती जलाते हैं । मैं मंदिर नहीं जाता हूँ, पर माँ के सोने के कमरे में कछुआ छाप अगरबत्ती लगा देता हूँ ।
सुबह जब माँ गीता पढ़ने बैठती है तो माँ का चश्मा साफ कर के देता हूँ । मुझे लगता है कि ईश्वर के फोटो व मूर्ति आदि साफ करने से ज्यादा पुण्य
माँ का चश्मा साफ करके मिलता है ।
यह बात श्रद्धालुओं को चुभ सकती है पर बात खरी है ।
हम बुजुर्गों के मरने के बाद उनका श्राद्ध करते हैं ।
पंडितों को खीर-पुरी खिलाते हैं ।
रस्मों के चलते हम यह सब कर लेते है, पर याद रखिए कि गाय-कौए को खिलाया ऊपर पहुँचता है या नहीं, यह किसे पता ।
माता-पिता को जीते-जी ही सारे सुख देना वास्तविक श्राद्ध है ॥